Wednesday, March 30, 2022

Baat

 जो बात पी गया था मैं

वही बात खा रही है मुझे।

-ओपियम

Friday, December 24, 2021

Jaada

 ओढ़ के कंबल ज़िद का जब नहीं होता गुजारा

तो एक चादर अधूरे ख्वाबों की भी ढांप लेता हूं 

लगता है जाड़ा  अकेलेपन का  जब भी 

तेरी  मगरूर यादों की तपिश ताप लेता हूं। 


- ओपियम

Tuesday, June 8, 2021

Sawaal

 

  

सब पूछते हैं मुझसे..

मैं उतना कामयाब क्यों नहीं 
जितना हो सकता था
मैं नहीं रोया उन बातों पर
जिन पर रो सकता था 
किस्मत की खा रहा हूं शायद 
जितना पाया उससे ज्यादा 
खो सकता था 
 इतना भी काफी है
 इतना ही हो सकता था..

Friday, May 14, 2021

Ishq

 तुमसे मिलने की हमें कोई सूरत नहीं मिलती,

मोहब्बत इतनी है कि बेबस जुबां नहीं खुलती।

- opium

Wednesday, March 17, 2021

उपलब्धि

 झील किनारे बैठ कर 

नन्हे कंकर हाथ लिए

बैठना एकाकी सांझ में 

कंकर से आंदोलित जल में 

खुद के अक्स को देख पाना 

ये मेरी बड़ी उपलब्धि है ।

दूरियों की महफिल 

अनदेखियो का नजराना 

पीछे से कोई नहीं आएगा

इस भाव से निश्चित तट पर

बैठ एकाकी मुस्काना

मेरी बड़ी उपलब्धि है।

झील सांझ पानी और कंकर

उर्वर धरा पर 

बंजर मन से एक

टूटी टहनी से खोद जरा सा 

कंचे का  पिल सा बनाना 

और कंचे बिन खेल निभाना 

यह मेरी उपलब्धि है ।

अरुण रंग में रंगा तेल चित्र

आसमान के कैनवस पर

बूढ़े बादल की ठिठोली में 

अर्ध शतक की गोधूलि में 

वही कुमार आयु सम 

छवि नित नई उकेर पाना 

यह मेरी उपलब्धि है।

बैठे-बैठे बिन उकताए

लंबे देख रात के साए

बिना प्रहर गिन

अपने जीवन पथ पर 

निश्चल हो वापस मेरा

घर दिशा में मुड़ आना

 यह मेरी उपलब्धि है।

 आकर उसी रंगमंच से 

जीवन की शतरंज पटृ पर

 फिर प्यादे सम होकर 

सहज भाव से सम हो जाना 

यह मेरी उपलब्धि है 

यह मेरी उपलब्धि है।

Sunday, June 21, 2020

सब लकड़ियों पर जलता रहा  मैं मगर रोया नहीं  जो बच गया उसे बहा दिया नदी में  मैं मगर रोया नहीं  तुम चले गए बेशक मगर जो जला नहीं बहा नहीं  वो बहुत कुछ भीतर छोड़ गए तुम  जब तक वो साथ है मैं रोऊँगा नहीं।   पापा मैं वादा तोडूंगा नहीं मुस्कुराने का !

Saturday, May 25, 2019

पॉलिटिक्स एक ऐसा संसार है जहां पर 
खुद को शामिल करके अपनी ज़िन्दगी 
की घटत बढ़त से मन छिटक कर 
जीवन के महामार्ग पर जाता हुआ प्रतीत होता है 
कोई भी जीते कोई भी हारे 
हमे तो कोई वित्त मंत्री बनाने से रहा 
कोई हमारी फाइल दफ्तर के गलियारों में 
बढ़ाने से रहा 
पर हाँ जीवन की दरिद्रता और क्षुद्रता से कुछ 
देर को छुटकारा सा मिल जाता है 
लगने लगता है 
कि ये जो संसद या विधान सभा में बैठते हैं न 
सब अपने ही लोग हैं 
इन्हे हमने ही वहाँ बैठाया है 
और वो जानते हैं कि  
भैय्या तुम वोटरों का मनोविज्ञान जानते हैं हम 
जब चाहेंगे जैसा चाहेंगे निकलवा लेंगे तुमसे ही 
पर हम हैं कि  मस्त हैं भ्रम संसार में 
कि  हम सूरज ऊगा रहे रहे हैं 
हम ही हैं जो चाँद की बत्ती जला रहे हैं 
सवाल दर असल ये होना चाहिए कि 
हम किस गली जा रहे हैं 
( ये गाना चला दिया है मैंने.. रेडिओ शैली में )