बड़ी बेहोश होती है ज़िन्दगी जहां देखा हुआ नज़र नहीं आता
इतने सीखे हैं क्या क्या किस किस से के अब अन सीखा नहीं जाता
पजामा पहन के इंसान का कोई बन्दर बोले मैं इंसा हूँ
मेरी नज़रों को मेरे देखे का भरोसा नहीं आता .
कौन सी सोच थी जो खोखला कर गयी हमको
इतनी हैं कि किसको इलज़ाम दें ये बतलाया नहीं जाता
मैं रुक जाऊं तो क्या सड़क चल पड़ती है
यहां मौत से पहले किसी को रुकना नहीं आता.
इतनी बद गुमानी है सभी में किस की कहूँ तुमसे
टूट जाते हैं पर मोहब्बत में भी उन्हें झुकना नहीं आता।
मुझे आती नहीं ज़िन्दगी की रवायतें फिर भी
घर आये मेहमान को रुस्वा करना नहीं आता
मेरे माज़ी से रिश्ते हैं मगर अब रूठे रहते हैं
चली जाती हैं सब यादें ज़हन से पर तेरा चेहरा नहीं जाता।
~ ओपियम
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