Friday, February 12, 2016

जिनको सबकी नज़रें बचा के ताड़ा था 
प्रेम पर्व से पूर्व उन नामों को झाड़ा था 
कभी वसंत थी कभी ग्रीष्म कभी जाड़ा था 
आज उम्र के कौतुक दशक में गिन रहा 
एकमुखी प्रेम का पहाड़ा था 
कितनी मीठी यादें हैं कितने सुन्दर चेहरे थे 
दिल पर मेरे लगे संस्कारी समाज के पहरे थे 
कुछ पल में भस्म हुए कुछ पल दो पल को ठहरे थे 
बहुत तो उथले उथले थे पर याद है कुछ गहरे थे 
प्रेम पर्व की अंगड़ाई में हुई यादों संग सगाई है 
जो लगती थीं अपनी अपनी किंचित आज पराई हैं
मन के राज महल में मैं राजा और कितनी रानियां थीं 
क्या मुझको को वो चाहती होंगी दिल में ये हैरानियाँ थीं 
प्रेम विरह का दंश झेलना और सामान्य दिखना 
व्यक्त्तिव की यही समृद्धि है। 
प्रेम खड्ड में गिर कर उठना फिर गिरना 
ये मेरी उपलब्धि है 
ये मेरी उपलब्धि है !!
~Opium

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