यादों के पतीले में खिचड़ी पका रहा था
जो कच्चा रहा उसे देर तक चबा रहा था
बहुत नज़र अंदाज़ हुआ दुनिया के हाथों
मंजिल पे पहुँच के सबसे खफा रहा था
जिसकी नज़र में नुक्सान ही नफा रहा था
अपनी नज़र में वो ऊंचा सदा रहा था
वो राह वो मंज़र वो मोड़ वो चौरस्ते
उन्ही पर चला वो
जिसपे न कोई आ रहा था न जा रहा था।
यादों के झुण्ड का नरमुंड पहन
वो गीत यही गुनगुना रहा था।
वक़्त की गोधुलि बिता रहा था
ख्वाब के तकिये में कोई सपना चरमरा रहा था।
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