
कितने दर्द दफन हैं क्या मालूम मेरे सीने में
जो रहते हैं बोझिल मेहेज़ अपने ग़म से
बस उन्हें मज़ा आता है शराब पीने में
आराम से बैठ हुक्म चलते हैं जो
वो क्या जाने क्या रक्खा है पसीने में
जो नकाब पेहेन के जीते है
वो क्या जाने क्या फर्क है मरने जीने में
वो खुदा है गर तुमने खुद खोजा है
फिर क्या फर्क के वो बैठा मंदिर या मदीने में
वो वादा करके भूल गया शायद
उम्मीद है आएगा इस साल इसी महीने में
1 comment:
lines close to life !!
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