Friday, October 14, 2011

barf


उम्र की मचान से
शिकार जीवन दिख रहा था
शीत ऋतु की तरह जज्बाती
आंच पर वो सिक रहा था
गर्म हाथों से छुआ जिसे
रिश्तों की मंझधार पे
वो ठंडा बिक रहा था...
रास्ते चलते कहाँ हैं
पाँव ही उठते हैं जिस तरह
दूर पानी की लहर सा
मृग मरीचिका बन दिख
रहा था
मंजिलों पे थक के बैठा था कोई
और कोई रास्तों पर
मंजिलों की दास्तानें लिख रहा था...
अपनी अपनी कोशिशें ही है ज़िन्दगी
तू वो देख जो मुझको दिख रहा था...
चार कोने दूर थे
ज़िन्दगी की भंवर से
कोई कोना
आसमां सा दिख रहा था...
मैं कहाँ मेरी बातें कहाँ
ज़ख्म था जो
रिस रहा था
रिस रहा था....

1 comment:

Geeta said...

My God !! Too GOOD !! yOU DESERVE A PAT ON YOUR BACK !!