
उम्र की मचान से
शिकार जीवन दिख रहा था
शीत ऋतु की तरह जज्बाती
आंच पर वो सिक रहा था
गर्म हाथों से छुआ जिसे
रिश्तों की मंझधार पे
वो ठंडा बिक रहा था...
रास्ते चलते कहाँ हैं
पाँव ही उठते हैं जिस तरह
दूर पानी की लहर सा
मृग मरीचिका बन दिख
रहा था
मंजिलों पे थक के बैठा था कोई
और कोई रास्तों पर
मंजिलों की दास्तानें लिख रहा था...
अपनी अपनी कोशिशें ही है ज़िन्दगी
तू वो देख जो मुझको दिख रहा था...
चार कोने दूर थे
ज़िन्दगी की भंवर से
कोई कोना
आसमां सा दिख रहा था...
मैं कहाँ मेरी बातें कहाँ
ज़ख्म था जो
रिस रहा था
रिस रहा था....
1 comment:
My God !! Too GOOD !! yOU DESERVE A PAT ON YOUR BACK !!
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