
सब दिन ऐसे थोड़े ही होते हैं
हर दिन थोड़े ही ऐसे होता है
सब को मैं अच्छा लग जाऊं
सब मेरी ही बात करें
सब दिन सबकी मर्ज़ी हो तो
मुझसे हंस के बात करें
कभी किसी को जल्दी होती
कभी किसी का सर दुखता है
कभी कोई हंसने के बदले
मुंह फेर बच निकलता है
हर दिन अपनी रुसवाई है
हर दिन की अपनी रुत बेला है
कभी कभी महफ़िल है लगती
कभी मन नितांत अकेला है
कोई हंस के बात करे तो मन
को राहत मिल जाती है
कभी कोई हंस के बात करे तो
खिसियाहट भी खिल जाती है
वोही नहीं मैं भी मूडी हूँ
सभी से मिलता हूँ तो हर बार
अलग सा मिलता हूँ
कैसे कह दूं वोही ग़लत हैं
मैं भी उनसे मिलता जुलता हूँ
कभी कभी तो लगता है
मैं वो हूँ वो मैं हैं...
पर निन्दित पर स्नेहित
आत्म सम्मोहित
आत्म समाहित...
1 comment:
OP, last few lines are not clear because of writing errors, pl. make them clear, otherwise it carries deep thoughts !!
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