कभी शबनमी शाम हो
यादों की लकड़ी जलाऊं
उससे जो मिले गर्मी
उसे बटोर के सो जाऊं
आसमा निष्ठुर है
ज़मीन पथरीली है
तुम उठाओ ज़रा
हवाओं पे बैठ जाऊं
तुम धूप बनके आना
मैं सूरजमुखी बन जाऊं
किस गली किस मोड़ पे हो
बताते हुए आना
मैं जीना चाहता हूँ
तुम्हारी प्रतीक्षा के हर रंग को
मैं जीना चाहता हूँ
पल पल बढ़ती हर धड़कन को
व्याकुलता के उत्तंग शिखर पर
मिलना तुम
यही मोक्ष है मेरा !
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