Friday, January 13, 2017

कभी शबनमी शाम हो 
यादों की लकड़ी जलाऊं 
उससे जो मिले गर्मी 
उसे बटोर के सो जाऊं 
आसमा निष्ठुर है 
ज़मीन पथरीली है 
तुम उठाओ ज़रा 
हवाओं पे बैठ जाऊं 
तुम धूप बनके आना 
मैं सूरजमुखी बन जाऊं 
किस गली किस मोड़ पे हो
बताते हुए आना 
मैं जीना चाहता हूँ 
तुम्हारी प्रतीक्षा के हर रंग को 
मैं जीना चाहता हूँ 
पल पल बढ़ती हर धड़कन को 
व्याकुलता के उत्तंग शिखर पर 
मिलना तुम 
यही मोक्ष है मेरा !

No comments: