उम्मीदों की रीढ़ पर आरोपित उत्साहित मन नहीं था
नीर बरस रहा था निर्झर... सावन नहीं था...
पूर्ण से अवगत मन था अवचेतन नहीं था.
मैं दानी भी न था ....कृपण भी न था
सोते सोते उचटती नींदों ने जब भी पूछा
मन अशांत था कोई कारण नहीं था.
प्रसन्न तो था ही नहीं अप्रसन्न भी नहीं था..
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