Sunday, April 1, 2012

कल


मेरी बातों का उनपे अब कम असर लगता है
थोडा है गुरूर, बहुत थोडा सबर लगता है
मैं बोलता हूँ तो जिंदा लगता हूँ
खामोश हो जाऊं तो कबर लगता है.
तारीफ सुनना तकलीफ देता है अब
बुराई करूं तो खबर लगता है...
चौंक के नज़र जाती है जो गुज़रे कल पर
हर लम्हा तिनका तिनका दर बदर लगता है

2 comments:

Unknown said...

its just amazing

Hirendra Jha said...

ऋग्वेद में दो पक्षियों की कथा है। सुपर्ण पक्षी। दोनों एक ही डाल पर बैठे हैं। एक अमृत फल खाता है। दूसरा उसे फल खाते देखता है और प्रसन्न होता है। उसे लगता है कि वह ख़ुद फल खा रहा है। जितनी तृप्ति पहले पक्षी को फल खाने से मिल रही है, उतनी ही तृप्ति दूसरे को उसे फल खाते देखने से मिल रही है। दोनों के पास ही खाने की तृप्ति है। खाने पर भी खाने की तृप्ति और देखने पर भी खाने की तृप्ति। इसे ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखायौ’ कहा गया है।

यह सख्य-भाव है। सखा जैसा। यह भाव सबकुछ को समाहित कर लेता है। इसमें समानुभूति है। समानुभूति में सबकुछ है। यही साहित्य का मूल गुण है। एक किरदार किताब के भीतर बैठा फल खा रहा है या प्रेम कर रहा है, दूसरा किरदार या पाठक किताब के बाहर बैठा उसे फल खाता देख रहा है, प्रेम करता देख रहा है और प्रसन्न हो रहा है। वह उसी अनुभूति को किताब से बाहर जी रहा है, जिस अनुभूति को पहला किरदार किताब के भीतर जी रहा है। यह समानुभूति ही साहित्य को परिभाषित करती है। यह दोनों के बीच का बंधुत्व है। विषय और आस्वादन का बंधुत्व। एक ही पल का दो अलग-अलग व्‍यक्तियों के लिए दो अलग-अलग क्रियाओं द्वारा एक ही भाव को जीने का बंधुत्‍व. यह बंधन बिल्‍कुल नहीं, बल्कि बंधुत्व है।